Sunderkand Lyrics in Hindi | संपूर्ण पाठ

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Sunderkand Lyrics in Hindi | संपूर्ण पाठ

सुंदरकांड रामचरितमानस का वह अंश है जिसमें भगवान श्रीराम के परम भक्त हनुमान जी की वीरता, भक्ति और समर्पण का अद्भुत चित्रण मिलता है। जो व्यक्ति नियमित रूप से सुंदरकांड का पाठ करता है, उसके जीवन में संकट, भय और नकारात्मकता का नाश होता है। इस ब्लॉग में हम आपको सुंदरकांड के संपूर्ण लिरिक्स हिंदी में प्रदान कर रहे हैं, ताकि आप आसानी से इसका पाठ कर सकें और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त कर सकें।Sunderkand Lyrics in Hindi

Sunderkand Lyrics in Hindi – सुंदरकांड लिरिक्स हिंदी में

श्रीगणेशाय नमः
श्रीरामचन्द्र कृपालु भजु मन, हरण भवभय दारुणम्…

॥ ॐ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ श्रीजानकीवल्लभो विजयते ॥
॥ श्रीरामचरितमानस पंचम सोपान श्री सुंदरकाण्ड ॥

॥ श्लोक ॥

शान्तं शाश्वतमप्रमे्यमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्॥
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्॥

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवनाखिलान्तरात्मा॥
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषपरिहृतं कुरु मानसं च॥

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥

॥ चौपाई ॥

जामवंत के बचन सुहाए । सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई । सहि दुख कंद मूल फल खाई ॥

॥ ॥

जब लगि आवौं सीतहि देखी । होइहि काज मोहि हरष बिसेषी ॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलें हरष हियँ धीर रघुनाथा ॥

॥ ॥

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर । कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ॥
बार बार रघुबीर सँभारी । तर्केउ पवनतनय बल भारी ॥
जौंहि गिरि चरन देइ हनुमंता । चलेउ सो गा पाताल तुरंता ॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना । एही भाँति चलेउ हनुमाना ॥
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी । तैं मैनाक होइ श्रम हारी ॥

॥ दोहा ॥

हनुमान तहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम ।
राम काज कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ॥

॥ चौपाई ॥

जात पवनसुत देवन्ह देखी । जानें कहाँ बल बुद्धि बिसेषा ॥
सुरसा नाम अहिन्ह के माता । पठइन्ह आई कहि तोहि बाता ॥

आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा । सुनत बचन कह पवनकुमारा ॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं । सीता कँह सुधि प्रभुहि सुनावौं ॥

तब तपु बदन पैठइन्ह आई । सत्य कहँउ मोहि जान दे माई ॥
कबनहुँ जतन देइ नहीं जाना । गससि न मोहि कहेउ हनुमाना ॥

जोजन भरि तोहि बदन पसारा । कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥
सोरह जोजन मुख तोहि ठायउ । तुरत पवनसुत बाइस भयउ ॥

जस जस सुरसा बदन बढ़ावा । तासु दूग कपि रूप देखावा ॥
सत जोजन तोहि आनन कीन्हा । अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा ॥

॥ ॥

बदन पथि पुनि बाहेर आवा । मागा बिदा ताहि सिरु नावा ॥
मोहि सुरन्ह जोइ लागि पठावा । बुद्धि बल मरमु तोर मैं पावा ॥

॥ दोहा ॥

राम काजु सबु करिहु तुम्ह बल बुद्धि निधान ।
आसिष देह गई सो हरषि चलेउ हनुमान ॥

॥ चौपाई ॥

निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई । करि माया नभु के खग गहई ॥
जीव जन्तु जे गगन उड़ाहीं । जल बिलोकि तिन्ह के परिछाहीं ॥

गहइ छाँह सक सो न उड़ाई । एहि बिधि सदा गगनचर खाई ॥
सोंइ छल हनूमान कहँ कीन्हा । तासु कपट कपि तुरतहिं चीन्हा ॥

ताहि मारि मारुतसुत बीरा । बारिधि पार गयउ मति धीरा ॥
तहाँ जाइ देखी बन सोभा । गुंजत चंचरीक मधु लोभा ॥

नाना तरु फल फूल सुहाए । खग मृग बृंद देखि मन भाए ॥
सैल बिसाल देखि एक आगे । ता पर चढ़े चढ़े भय त्यागे ॥

उमा न कछु कपि के अधीकाई । प्रभु प्रताप जो कालहि खाई ॥
गिरि पर चढ़ि लंका तिहिं देखी । कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी ॥

अति उंचंग जलनिधि चहु पासा । कनक कोट कर परम प्रकाशा ॥

॥ छंद ॥

कनक कोट बिचित्र मनि कूत सुंदरायतना घना ॥
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना ॥

गज बाजि खचर निकर पदचर रथ बरुथिन्ह को गने ॥
बहुरूप निसिचर जुथ अतिबल सेन बरनन नहिं बने ॥

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापी सोहहीं ॥
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं ॥

कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अति बल गर्जहीं ॥
नाना अखारजहुं भिरहिं बहु बिधि एक एकन्हुं तरजहीं ॥

करि जतन भट कोटिन्ह विकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं ॥
कहुँ माहिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं ॥

एहि लागि तुलसीदास इनहिं की कथा कछु एक है कही ॥
रघुबीर सर तीर्थ सरिन्हुं त्यागि गति पैहिं सही ॥

॥ दोहा ॥

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार ।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पड़सार ॥

॥ चौपाई ॥

मसक समान रूप कपि धरी । लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी । सो कह चलेसि मोहि निंदरी ॥

जानउँ नहीं मरमु सठ मोरा । मोर अहर जहाँ लगि चोरा ॥
मुष्टि का एक महा कपि हनी । रुंधिर बमत धरनी ठनमनी ॥

पुनि संभारि उठि सो लंका । जोरि पानि कर बिनय संका ॥
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा । चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ॥

बिकल होसि तैं कपि के मारे । तब जानेसु निसिचर संहारे ॥
तात मोर अति पुण्य बहुता । देखेउँ नयन राम कर दूता ॥

॥ दोहा ॥

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥114॥

॥ चौपाई ॥

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा । हृदयँ राखि कौसलपुर राजा ॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिठाई । गोपद सिंधु अनल सितलाई ॥
गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही । राम कृपा करि चितवा जाही ॥
अति लघु रूप धरउ हनुमाना । पैठा नगर सुमिरि भगवाना ॥

मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा । देखे जहाँ तहँ अगिनित जोधा ॥
गयउ दसानन मंदिर माहीं । अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं ॥
सयन किए देखा कपि तेही । मंदिर माँह न दीखि बैंदेही ॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा । हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा ॥

॥ दोहा ॥

रामायुध अंकित गृह शोभा बरनि न जाए ।
नव तुलसिका बूँट तहँ देखि हरषि कपिराए ॥

॥ चौपाई ॥

लंका निसिचर निकर निवासा । इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ॥
मन मुँहु तर्क करे कपि लागा । तेहीं समय बिभीषनु जागा ॥
राम राम तिहिं सुमिरन कीन्हा । हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा ॥
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी । साधु ते होइ न कारज हानी ॥

बिप्र रूप धरि बचन सुनाए । सुनत बिभीषनु उठि तहँ आए ॥
करि प्रनाम पूँछि कुसलाई । बिप्र कहहु निज कथा बुझाई ॥
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई । मोरे हृदय प्रीति अति होई ॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी । आयहु मोहि करन बड़भागी ॥

॥ दोहा ॥

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम ।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ॥

॥ चौपाई ॥

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी । जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा । करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा ॥
तामस तनु कछु साधन नाही । प्रीति न पद सरोज मन माहीं ॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता । बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ॥
जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा । तो तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा ॥
कहु कवन मैं परम कुलीना । कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा । तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ॥

॥ दोहा ॥

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर ।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥

॥ चौपाई ॥

जानतहुँ अस स्वामि बिसारी । फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी ॥
एहि बिधि कहत राम गुन गुन ग्रामा । पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा ॥
पुनि सब बिभीषन कही । जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही ॥
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता । देखी चहउँ जानकी माता ॥
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई । चलेउ पवनसुत बिदा कराई ॥
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ । बन अशोक सीता रह जहवाँ ॥
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा । बैठहिं बीति जात निसि जामा ॥
कृस तन सीस जटा एक बेनी । जपति हृदय रघुपति गुन श्रेनी ॥

॥ दोहा ॥

निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन ।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥118॥

॥ चौपाई ॥

तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई । करइ बिचार करौं का भाई ॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा । संग नारि बहु किएँ बनावा ॥
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा । साम दान भय भेद देखावा ॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी । मंदोदरी आदि सब रानी ॥
तव अनुचरी करउँ पन मोरा । एक बार बिलोकु मम ओरा ॥
तृन धरि ओट कहती बैदेही । सुमिरि अवधपति परम सनेही ॥
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा । कबहुँ कि नलिनि करइ बिकासा ॥
अस मन समुझु कहती जानकी । खल सुधि नहिं रघुबीर बान की ॥
सठ सूने हरि आनेहि मोहि । अधम निलज्ज लाज नहिं तोही ॥

॥ दोहा ॥

आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान ।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥

॥ चौपाई ॥

सीता तैं मम कृत अपमाना । कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना ॥
नाहिन त सपदि मानु मम बानी । सुमुखि होति न त जीवन हानी ॥
श्याम सरोज दाम सम सुंदर । प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर ॥
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा । सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा ॥
चंद्रहास हरु मम परि तापा । रघुपति बिरह अनल संजातं ॥
सीतल निसित बहसि बर धारा । कह सीता हरु मम दुख भारा ॥
सुनत बचन पुनि मारन धावा । मयतनयाँ कहि नीति बुझावा ॥
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई । सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई ॥
मास दिवस महुँ कहा न माना । तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना ॥

॥ दोहा ॥

भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बूंद ।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद ॥

॥ चौपाई ॥

त्रिजटा नाम राच्छसी एका । राम चरन रति निपुन बिबेका ॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना । सीतहि सेइ करहु हित अपना ॥
सपनें बानर लंका जारी । जातुधान सेना सब मारी ॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा । मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ॥
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई । लंका मनहुँ बिभीषन पाई ॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई । तब प्रभु सीता बोलि पठाई ॥
यह सपना मैं कहउँ पुकारी । होइहि सत्य गएँ दिन चारी ॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं । जनकसुता के चरनन्हि परीं ॥

॥ दोहा ॥

जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच ।
मास दिवस बीते मोहि मारिहि निसिचर पोच ॥

॥ चौपाई ॥

त्रिजटा सन बोली कर जोरी । मातु बिपति गिनि तें मोरी ॥
तजि देह करु बेगि उपाई । दुसहु बिरहु अब नहि सहि जाई ॥
आनि काठ रचु चिता बनाई । मातु अनल पुनि देहि लगाई ॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी । सुनेउ को श्रवन सूल सम बानी ॥
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि । प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ॥
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी । अस कहि सो निज भवन सिधारी ॥
कहु सीता बिधि भा प्रतिकूल । मिलहि न पावक मिटिहि न सूला ॥
देखिअत प्रगट गगन अंगारा । अवनि न आवत एकउ तारा ॥
पावक मय ससि स्रवत न आगी । मानहुँ मोहि जानि हतभागी ॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका । सत्य नाम करु हरु मम सोका ॥
नूतन किसलय अनल समाना । देहि अगिनि जनि करहि निदाना ॥
देखि परम बिरहाकुल सीता । सो छन कपिहि कलप सम बीता ॥

॥ सोरठा ॥

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारी तब ।
जनु अशोक अंगार दीन्हि हरषि उठि कर गहेउ ॥

॥ चौपाई ॥

तब देखी मुद्रिका मनोहर । राम नाम अंकित अति सुंदर ॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी । हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी ॥
जीति को सकइ अजय रघुराई । माया ते असि रचि नहिं जाई ॥
सीता मन बिचार कर नाना । मधुर बचन बोलेउ हनुमाना ॥
रामचंद्र गुन बरनै लागा । सुनतहीं सीता कर दुख भागा ॥
लागि सुनैं श्रवन मन लाई । आदिहु तें सब कथा सुनाई ॥
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई । कहि सो प्रगट होति किन भाई ॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ । फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ॥
राम दूत मैं मातु जानकी । सत्य सपथ करुनानिधान की ॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी । दीन्हि राम तुम्ह कहुँ सहिदानी ॥
नर बानरहि संग कहु कैसे । कहि कथा भइ संगति जैसे ॥

॥ दोहा ॥

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास ।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥

॥ चौपाई ॥

हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी । सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी ॥
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना । भयउ तात मों कहुँ जलजाना ॥
अब कहु कुसल जाऊँ बलिहारी । अनुज सहित सुख भवन खरारी ॥

कोमलचित कृपाल रघुराई । कपि केहि हेतु धरी निठुराई ॥
सहज बानि सेवक सुख दायक । कबहुँ सुरति करत रघुनायक ॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता । होइहहिं निरखि श्याम मृदु गाता ॥

बचनु न आव नयन भरे बारी । अहेह नाथ हौं निपट बिसारी ॥
देखि परम बिरहाकुल सीता । बोला कपि मृदु बचन बिनीता ॥
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता । तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ॥
जनि जननी मानहु जियँ ऊना । तुम्ह ते प्रेम राम के दूना ॥

॥ दोहा ॥

रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर ।
अस कहि कपि गद गद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥

॥ चौपाई ॥

कहेउ राम बियोग तव सीता । मो कहुँ सकल भए बिपरीता ॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू । काल निसि सम निसि ससि भानू ॥

कुबल्य बिपिन कुत बन सरिसा । बारिद तपत तेल जनु बरिसा ॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा । उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा ॥
कहेहू तें कछु दुख घटि होई । काहि कहाँ यह जान न कोई ॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा । जानत प्रिया एकु मनु मोरा ॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं । जानु प्रीति रसु एतेन्हि माहीं ॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही । मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ॥
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता । सुमिरु राम सेवक सुखदाता ॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई । सुनि मम बचन तजहु कदराई ॥

॥ दोहा ॥

निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु ।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ॥

॥ चौपाई ॥

जौं रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलंबु रघुराई ॥
रामबान रवि उअँ जानकी। तम बरूथ कहँ जातुधान की ॥
अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई। प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई ॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ॥
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं। तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ॥
हौं सुत कपि सब तुम्हे समाना। जातुधान अति भट बलवाना ॥
मोरे हृदय परम संदेहा। सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा ॥
कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा ॥
सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ ॥

॥ दोहा ॥

सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तैं गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ॥

॥ चौपाई ॥

मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी ॥
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना ॥
अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू ॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ॥
बार बार नाइसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा ॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता ॥
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा ॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी ॥
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं

॥ दोहा ॥

देखि बुध्दि बल निपुन कपि कहेउ जानकी जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ॥

चलेउ नाइ सि रु पैठेड बागा । फल खाइसि तरु तोरें लागा ॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे । कहु मारिसि कछु जाइ पुकारे ॥
नाथ एक आवा कपि भारी । तेहिं अशोक बाटिका उजारी ॥
खाइसि फल अरु बिटप उपारे । रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे ॥
सुनि रावन पठए भट नाना । तिन्हहिं देखि गर्जेउ हनुमाना ॥
सब रजनीचर कपि संघारे । गए पुकारत कछु अधमारे ॥
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा । चला संग लै सुभट अपारा ॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जी । ताहि निपाति महाधुनि गर्जी ॥

॥ दोहा ॥

कछु मारिसि कछु मर्दासि कछु मिलसि धरि धूरि ।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि ॥

॥ चौपाई ॥

सुनि सुत बध लंकेस रिसाना । पठएसि मेघनाद बलवाना ॥
मारिसि जनि बांधेसु ताही । देखिअ कपिहि कहाँ कर आही ॥
चला इंद्रजित अतुलित जोधा । बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ॥
कपि देखा दारुन भट आवा । कटकटाइ गर्जा अरु धावा ॥
अति बिसाल तरु एक उपारा । बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा ॥
रहे महाभट ताके संगा । गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा ॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा । भिरे जुगल मानहुँ गजराजा ॥
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई । ताहि एक छन मुरुछा आई ॥
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया । जीति न जाइ प्रभंजन जाया ॥

॥ दोहा ॥

ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार ।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥

॥ चौपाई ॥

ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहि मारा । परतिहुँ बार कटकु संघारा ॥
तेहि देखा कपि मुरछित भयऊ । नागपास बांधिसि लै गयऊ ॥
जासु नाम जपि सुनहु भवानी । भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा । प्रभु कारज लगि कपिहिं बंधावा ॥
कपि बंधन सुनि निसिचर धाये । कौतुक लागि सभाँ सब आए ॥
दसमुख सभा देखि कपि जाई । कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ॥
कर जोरे सुर दिसिप बिनीता । भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ॥
देखि प्रताप न कपि मन संका । जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ॥

॥ दोहा ॥

कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद ।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद ॥

॥ चौपाई ॥

कह लंकेस कवन तैं कीसा । केहि के बल घालेहि बन खीसा ॥
की धौं श्रवन सुनेहिं नहिं मोही । देखउँ अति असंक सठ तोही ॥
मारे निसिचर केहि अपराधा । कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ॥
सुन रावन ब्रह्मंड निकाया । पाइ जासु बल बिरचित माया ॥
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा । पालत सृजत हरत दससीसा ॥
जा बल सीस धरत सहसानन । अंडकोस समेत गिरि कानन ॥
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता । तुम्ह ते सठन्ह सिखावनु दाता ॥
हर कोदंड कठिन जेहि भंजा । तेहि समेत नृप दल मद गंजा ॥
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली । बधे सकल अतुलित बलसाली ॥

॥ दोहा ॥

जाके बल लवलेस तें जीतेहु चराचर झारि ।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥

॥ चौपाई ॥

जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई । सहसबाहु सन परी लराई ॥
समर बालि सन करि जसु पावा । सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा ॥
खायउँ फल प्रभु लागि भूखा । कपि सुभाव ते तोरें रूखा ॥
सब के देह परम प्रिय स्वामी । मारहिं मोहि कुमारग गामी ॥
जिन्ह मोहि मारा तैं मैं मारे । तेहि पर बांधउ तनयँ तुम्हारे ॥
मोहि न कछु बांधे कइ लाजा । कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ॥
बिनती करउँ जोरि कर रावन । सुनहु मान तजि मोर सिखावन ॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी । भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ॥
जाकें डर अति काल डेराई । जो सुर असुर चराचर खाई ॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजे । मोरे कहे जानकी दीजे ॥

॥ दोहा ॥

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि ।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ॥

॥ चौपाई ॥

राम चरन पंकज उर धरहू । लंका अचल राज तुम्ह करहू ॥
रिषि पुलिस्त जसु बिमल मयंका । तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका ॥
राम नाम बिनु गिरा न सोहा । देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी । सब भूषन भूषित बर नारी ॥
राम बिमुख संपत्ति प्रभुताई । जाइ रही पाई बिनु पाई ॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाही । बरषि गए पुनि तबहिं सुखाहीं ॥
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी । बिमुख राम त्राता नहिं कोपी ॥
संकर सहस बिष्णु अज तोही । सकहिं न राखि राम कर द्रोही ॥

॥ दोहा ॥

मोह मूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान ।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ॥

॥ चौपाई ॥

जदपि कहि कपि अति हित बानी । भगति बिबेक बिरति नय सानी ॥
बोला बिहसि महा अभिमानी । मिला हमहि कपि गुरु बड़ ग्यानी ॥
मृत्यु निकट आई खल तोही । लागेशि अधम सिखावन मोही ॥
उलटा होइहि कह हनुमाना । मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना ॥
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना । बेगि न हरहुँ मूढ़ कर प्राना ॥

सुनत निसिचर मारन धाए । सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए ॥
नाइ सीस करि बिनय बहुता । नीति बिरोध न मारिअ दूता ॥
आन दंड कछु करिअ गोसाईँ । सबहीं कहा मंत्र भल भाई ॥
सुनत बिहसि बोला दसकंधर । अंग भंग करि पठउब बंदर ॥

॥ दोहा ॥

कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ ।
तेल बोरि पट बांधि पुनि पावक देहु लगाइ ॥

॥ चौपाई ॥

पूँछहीन बानर तहँ जाइहि । तब सठ निज नाथहि लइ आइहि ॥
जिन्ह कै कीन्हसि बहुत बड़ाई । देखउँ तिन्ह कै प्रभुताई ॥
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना । भइ सहाय सारद मैं जाना ॥
जातुधान सुनि रावन बचना । लागे रचें मूढ़ सोइ रचना ॥
रहा न नगर बसन घृत तेला । बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला ॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी । मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी ॥
पावक जरत देखि हनुमंता । भयउ परम लघु रूप तुरंता ॥
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारी । भई सभीत निसिचर नारी ॥

॥ दोहा ॥

हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास ।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास ॥

॥ चौपाई ॥

देह बिसाल परम हरुआई । मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई ॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला । झपट लपट बहु कोटि कराला ॥
तात मातु हा सुनिअ पुकारा । एहि अवसर को हमहि उबारा ॥
हम जो कहा यह कपि नहिं होई । बानर रूप धरें सुर कोई ॥
साधु अवग्या कर फलु ऐसा । जरइ नगर अनाथ कर जैसा ॥
जारा नगरु निमिष एक माहीं । एक बिभीषन कर गृह नाहीं ॥
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा । जरा न सो तेहि कारन गिरिजा ॥
उलटि पलटि लंका सब जारी । कूदि परा पुनि सिंधु मझारी ॥

॥ दोहा ॥

पूँछ बुझाइ खोड़ श्रम धरि लघु रूप बहोरि ।
जनकसुता के आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि ॥

॥ चौपाई ॥

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा । जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ॥
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ । हरष समे त पवनसुत लयऊ ॥
कहेहु तात अस मोर प्रनामा । सब प्रकार प्रभु पूरनकामा ॥
दीन दयाल बिरिदु संभारी । हरहु नाथ मम संकट भारी ॥
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु । बान प्रताप प्रभुहि समझाएहु ॥
मास दिवस महुँ नाथु न आवा । तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा ॥
कहु कपि केहि बिधि राखउँ प्राना । तुम्हहू तात कहत अब जाना ॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती । पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती ॥

॥ दोहा ॥

जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह ।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह ॥

॥ चौपाई ॥

चलत महाधुनि गर्जसि भारी । गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी ॥
नाधि सिंधु एहि पारहि आवा । सबद किलकिला कपिन्ह सुनावा ॥
हरषे सब बिलोकि हनुमाना । नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा । कीन्हेसि रामचन्द्र कर काजा ॥
मिले सकल अति भए सुखारी । तलफत मीन पाव जिमि बारी ॥
चले हरषि रघनायक पासा । पूँछत कहत नवल इतिहासा ॥
तब मधुबन भीतर सब आए । अंगद समेत मधु फल खाए ॥
रखवारे जब बरजन लागे । मुष्टि प्रहार हनत सब भागे ॥

॥ दोहा ॥

जाड़ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज ।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥

चौपाई ॥

जौं न होति सीता सुधि पाई । मधुबन के फल सकहिं कि खाई ॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा । आइ गए कपि सहित समाजा ॥
आइ सबन्हि नावा पद सीसा । मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा ॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी । राम कृपाँ भा काजु बिसेषी ॥
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना । राखे सकल कपिन्ह के प्राना ॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ । कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ ॥
राम कपिन्ह जब आवत देखा । किएँ काजु मन हरष बिसेषा ॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई । परे सकल कपि चरनन्हि जाई ॥

॥ दोहा ॥

प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज ।
पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥

जामवंत कह सुनु रघुराया । जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया ॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर । सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर ॥
सोइ बिजई बिनई गुन सागर । तासु सुजसु त्रेलोक उजागर ॥
प्रभु की कृपा भयउ सबु काजू । जन्म हमार सुफल भा आजू ॥
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी । सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी ॥
पवनतनय के चरित सुहाए । जामवंत रघुपतिहि सुनाए ॥
सुनत कृपानिधि मन अति भाए । पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए ॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी । रहति करति रच्छा स्वप्रान की ॥

॥ दोहा ॥

नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट ।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥

॥ चौपाई ॥

चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही । रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही ॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी । बचन कहे कछु जनककुमारी ॥
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना । दीन बंधु प्रनतारति हरना ॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी । केहि अपराध नाथ हौं त्यागी ॥
अवगुन एक मोर मैं माना । बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना ॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा । निसरत प्रान करिहिं हठि बाधा ॥
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा । स्वास जरइ छन माहिं सरीरा ॥
नयन स्त्रवहि जलु निज हित लागी । जरैं न पाव देह बिरहागी ॥
सीता के अति बिपति बिसाला । बिनहिं कहें भलि दीनदयाला ॥

॥ दोहा ॥

निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति ।
बेगि चलिय प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥

॥ चौपाई ॥

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना । भरि आए जल राजिव नयना ॥
बचन काँय मन मम गति जाही । सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही ॥
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई । जब तव सुमिरन भजन न होई ॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की । रिपुहि जीति आनिबी जानकी ॥
सुनु कपि तोहि समान उपकारी । नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ॥
प्रति उपकार करौं का तोरा । सनमुख होइ न सकत मन मोरा ॥
सुनु सुत उरिन मैं नाहीं । देखेउँ करि बिचार मन माहीं ॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता । लोचन नीर पुलक अति गाता ॥

॥ दोहा ॥

सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत ।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥

॥ चौपाई ॥

बार बार प्रभु चहइ उठावा । प्रेम मगन तेहि उठब न भावा ॥
प्रभु कर पंकज कपि के सीसा । सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ॥
सावधान मन करि पुनि संकर । लागे कहन कथा अति सुंदर ॥
कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा । कर गहि परम निकट बैठावा ॥
कहु कपि रावन पालित लंका । केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना । बोला बचन बिगत अभिमाना ॥
साखामृग के बड़ि मनुसाई । साखा तें साखा पर जाई ॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा । निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा ॥
सो सब तव प्रताप रघुराई । नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥

॥ दोहा ॥

ता कहूँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकुल ।
तब प्रभावँ बड़वानलहिं जारि सकइ खलु तूल ॥

॥ चौपाई ॥

नाथ भगति अति सुखदायनी । देहु कृपा करि अनपायनी ॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी । एवमस्तु तब कहेउ भवानी ॥
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना । ताहि भजनु तजि भाव न आना ॥
यह संवाद जासु उर आवा । रघुपति चरन भगति सोइ पावा ॥
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा । जय जय जय कृपाल सुखकंदा ॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा । कहा चलैं कर करहु बनावा ॥
अब बिलंबु केहि कारन कीजे । तुरत कपिन्ह कहूँ आयसु दीजे ॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी । नभ तें भवन चले सुर हरषी ॥

॥ दोहा ॥

कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥

॥ चौपाई ॥

प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा । गरजहिं भालु महाबल कीसा ॥
देखी राम सकल कपि सेना । चितइ कृपा करि राजिव नैना ॥
राम कृपा बल पाइ कपिंदा । भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा ॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना । सगुन भए सुंदर सुभ नाना ॥
जासु सकल मंगलमय कीती । तासु पयान सगुन यह नीती ॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं । फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं ॥
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई । असगुन भयउ रावनहि सोई ॥
चला कटकु को बरनैं पारा । गर्जहि बानर भालु अपारा ॥
नख आयुध गिरि पादपधारी । चले गगन महि इच्छाचारी ॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं । डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं ॥

॥ छंद ॥

चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे ।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे ॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं ॥
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ॥
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई ॥
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई ॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी ॥
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ॥

॥ दोहा ॥

एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर ।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥

॥ चौपाई ॥

उहाँ निसाचर रहहिं ससंका । जब ते जारि गयउ कपि लंका ॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा । नहिं निसिचर कुल केर उबारा ॥
जासु दूत बल बरनि न जाई । तेहि आएँ पुर कवन भलाई ॥
दूतन्हि सन सुनि पुरजन बानी । मंदोदरी अधिक अकुलानी ॥
रहसि जोरि कर पति पग लागी । बोली बचन नीति रस पागी ॥
कंत करष हरि सन परिहरहू । मोर कहा अति हित हियँ धरहु ॥
समुझत जासु दूत कड़ करनी । स्त्रवहीं गर्भ रजनीचर धरनी ॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई । पठवहु कंत जो चहहु भलाई ॥
तब कुल कमल बिपिन दुखदाई । सीता सीत निसा सम आई ॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें । हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ॥

॥ दोहा ॥

राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक ।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥

॥ चौपाई ॥

श्रवन सुनी सठ ता करि बानी । बिहसा जगत बिदित अभिमानी ॥
सभय सुभाउ नारि कर साचा । मंगल महुँ भय मन अति काचा ॥
जौं आवइ मर्कट कटकाई । जिअहिं बिचारे निसिचर खाई ॥
कंपहिं लोकप जाकी त्रासा । तासु नारि सभीत बड़ि हासा ॥
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई । चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ॥
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता । भयउ कंत पर बिधि बिपरीता ॥
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई । सिंधु पार सेना सब आई ॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू । ते सब हँसे मष्ट करि रहहू ॥
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं । नर बानर केहि लेखे माही ॥

॥ दोहा ॥

सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस ।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥

॥ चौपाई ॥

सोइ रावन कहुँ बनि सहाई । अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई ॥
अवसर जानि बिभीषनु आवा । भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा ॥
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन । बोला बचन पाइ अनुसासन ॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता । मति अनुरुप कहउँ हित ताता ॥
जो आपन चाहै कल्याना । सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ॥
चौदह भुवन एक पति होई । भूतद्रोह तिष्टइ नहि सोई ॥
सो परनारि लिलार गोसाईं । तजउ चउथि के चंद कि नाई ॥
गुन सागर नागर नर जोऊ । अलप लोभ भल कहइ न कोऊ ॥

॥ दोहा ॥

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ॥

॥ चौपाई ॥

तात राम नहिं नर भूपाला । भुवनेस्वर कालहु कर काला ॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता । ब्यापक अजित अनादि अनंता ॥
गो द्विज धेनु देव हितकारी । कृपासिंधु मानुष तनुधारी ॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता । बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता ॥
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा । प्रनतारति भंजन रघुनाथा ॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही । भजहु राम बिनु हेतु सनेही ॥
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा । बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन । सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन ॥

॥ दोहा ॥

बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस ।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस ॥
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात ।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात ॥

॥ चौपाई ॥

माल्यवंत अति सचिव सयाना । तासु बचन सुनि अति सुख माना ॥
तात अनुज तव नीति बिभूषन । सो उर धरहु जो कहत बिभीषन ॥
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ । दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ ॥
माल्यवंत गृह गयउ बहोरी । कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी ॥
सुमति कुमति सब के उर रहहीं । नाथ पुरान निगम अस कहहीं ॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना । जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ॥
तव उर कुमति बसी बिपरीता । हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ॥
कालराति निसिचर कुल केरी । तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ॥

॥ दोहा ॥

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार ।
सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ॥

॥ चौपाई ॥

बुध पुरान श्रुति संमत बानी । कही बिभीषन नीति बखानी ॥
सुनत दसानन उठा रिसाई । खल तोहि निकट मृत्यु अब आई ॥
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा । रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा ॥
कहसि न खल अस को जग माहीं । भुज बल जाहि जिता मैं नाही ॥
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती । सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती ॥
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा । अनुज गहे पद बारहिं बारा ॥
उमा संत कइ इहइ बड़ाई । मंद करत जो करइ भलाई ॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा । रामु भजें हित नाथ तुम्हारा ॥
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ । सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ ॥

॥ दोहा ॥

रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि ।
मै रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि ॥

॥ चौपाई ॥

अस कहि चला बिभीषनु जबहीं । आयूहीन भए सब तबहीं ॥
साधु अवग्या तुरत भवानी । कर कल्यान अखिल कै हानी ॥
रावन जबहिं बिभीषन त्यागा । भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा ॥
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं । करत मनोरथ बहु मन माहीं ॥
देखिहउँ जाइ चरन जलजाता । अरुन मृदुल सेवक सुखदाता ॥
जे पद परसि तरी रिषिनारी । दंडक कानन पावनकारी ॥
जे पद जनकसुताँ उर लाए । कपट कुरंग संग धर धाए ॥
हर उर सर सरोज पद जेई । अहोभाग्य मै देखिहउँ तेई ॥

॥ दोहा ॥

जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ॥

॥ चौपाई ॥

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू । आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥
पापवंत कर सहज सुभाऊ । भजनु मोर तेहि भाव न काऊ ॥
जौं पै दुष्टहदय सोइ होई । मोरें सनमुख आव कि सोई ॥
निर्मल मन जन सो मोहि पावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥
भेद लेन पठवा दससीसा । तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा ॥
जग महुँ सखा निसाचर जेते । लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते ॥
जौं सभीत आवा सरनाई । रखिहउँ ताहि प्रान की नाई ॥

॥ दोहा ॥

उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत ।
जय कृपाल कहि चले अंगद हनू समेत ॥

॥ चौपाई ॥

सादर तेहि आगें करि बानर । चले जहाँ रघुपति करुनाकर ॥
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता । नयनानंद दान के दाता ॥
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी । रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी ॥
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन । स्यामल गात प्रनत भय मोचन ॥
सिंघ कंध आयत उर सोहा । आनन अमित मदन मन मोहा ॥
नयन नीर पुलकित अति गाता । मन धरि धीर कही मृदु बाता ॥
नाथ दसानन कर मैं भ्राता । निसिचर बंस जनम सुरत्राता ॥
सहज पापप्रिय तामस देहा । जथा उलूकहि तम पर नेहा ॥

॥ दोहा ॥

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर ।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥

॥ चौपाई ॥

अस कहि करत दंडवत देखा । तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा ॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा । भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा ॥
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी । बोले बचन भगत भयहारी ॥
कहु लंकेस सहित परिवारा । कुसल कुठाहर बास तुम्हारा ॥
खल मंडलीं बसहु दिनु राती । सखा धरम निबहइ केहि भाँती ॥
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती । अति नय निपुन न भाव अनीती ॥
बरु भल बास नरक कर ताता । दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ॥
अब पद देखि कुसल रघुराया । जौं तुम्ह कीन्ह जानि जन दाया ॥

॥ दोहा ॥

तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम ।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम ॥

॥ चौपाई ॥

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ । जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही । आवे सभय सरन तकि मोही ॥
तजि मद मोह कपट छल नाना । करउँ सद्य तेहि साधु समाना ॥
जननी जनक बंधु सुत दारा । तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ॥
सब कै ममता ताग बटोरी । मम पद मनहि बांध बरि डोरी ॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं । हरष सोक भय नहिं मन माहीं ॥
अस सज्जन मम उर बस कैसें । लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें ॥
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें । धरउँ देह नहिं आन निहोरें ॥

॥ दोहा ॥

सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम ।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ॥

॥ चौपाई ॥

सुनु लंकेस सकल गुन तोरें । तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें ॥
राम बचन सुनि बानर जूथा । सकल कहहिं जय कृपा बरूथा ॥
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी । नहिं अघात श्रवनामृत जानी ॥
पद अंबुज गहि बारहिं बारा । हृदयँ समात न प्रेमु अपारा ॥
सुनहु देव सचराचर स्वामी । प्रनतपाल उर अंतरजामी ॥
उर कछु प्रथम बासना रही । प्रभु पद प्रीति सरित सो बही ॥
अब कृपाल निज भगति पावनी । देहु सदा सिव मन भावनी ॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा । मागा तुरत सिंधु कर नीरा ॥
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं । मोर दरसु अमोघ जग माहीं ॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा । सुमन बृष्टि नभ भइ अपारा ॥

॥ दोहा ॥

रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड ।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेहु राजु अखंड ॥
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ ॥

॥ चौपाई ॥

अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना । ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना ॥
निज जन जानि ताहि अपनावा । प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा ॥
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी । सर्बरूप सब रहित उदासी ॥
बोले बचन नीति प्रतिपालक । कारन मनुज दनुज कुल घालक ॥
सुनु कपीस लंकापति बीरा । केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा ॥
संकुल मकर उरग झष जाती । अति अगाध दुस्तर सब भाँती ॥
कह लंकेस सुनहु रघुनायक । कोटि सिंधु सोषक तव सायक ॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई । बिनय करिअ सागर सन जाई ॥

॥ दोहा ॥

प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि ।
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ॥

॥ चौपाई ॥

सखा कही तुम्ह नीकि उपाई । करिअ दैव जौं होइ सहाई ॥
मंत्र न यह लछिमन मन भावा । राम बचन सुनि अति दुख पावा ॥
नाथ दैव कर कवन भरोसा । सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा ॥
कादर मन कहुँ एक अधारा । दैव दैव आलसी पुकारा ॥
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा । ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा ॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई । सिंधु समीप गए रघुराई ॥
प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई । बैठे पुनि तट दर्भ डसाई ॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए । पाछें रावन दूत पठाए ॥

॥ दोहा ॥

सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह ।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ॥

॥ चौपाई ॥

प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ । अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ ॥
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने । सकल बांधि कपीस पहिं आने ॥
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर । अंग भंग करि पठवहु निसिचर ॥
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए । बांधि कटक चहु पास फिराए ॥
बहु प्रकार मारन कपि लागे । दीन पुकारत तदपि न त्यागे ॥
जो हमार हर नासा काना । तेहि कोसलाधीस कै आना ॥
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए । दया लागि हँसि तुरत छोडाए ॥
रावन कर दीजहु यह पाती । लछिमन बचन बाचु कुलघाती ॥

॥ दोहा ॥

कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार ।
सीता देइ मिलेहु न त आवा काल तुम्हार ॥

॥ चौपाई ॥

तुरत नाइ लछिमन पद माथा । चले दूत बरनत गुन गाथा ॥
कहत राम जसु लंकाँ आए । रावन चरन सीस तिन्ह नाए ॥
बिहसि दसानन पूँछी बाता । कहसि न सुक आपनि कुसलाता ॥
पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी । जाहि मृत्यु आई अति नेरी ॥
करत राज लंका सठ त्यागी । होइहि जब कर कीट अभागी ॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई । कठिन काल प्रेरित चलि आई ॥
जिन्ह के जीवन कर रखवारा । भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा ॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी । जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी ॥

॥ दोहा ॥

की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर ।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥

॥ चौपाई ॥

ए कपि सब सुग्रीव समाना । इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना ॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं । तृन समान त्रेलोकहि गनहीं ॥
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर । पदुम अठारह जूथप बंदर ॥
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं । जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं ॥
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा । आयसु पै न देहिं रघुनाथा ॥
षोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला । पूरहीं न त भरि कुधर बिसाला ॥
मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा । ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा ॥
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका । मानहु ग्रसन चहत हहिं लंका ॥

॥ दोहा ॥

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम ।
रावन काल कोटि कहु जीति सकहिं संग्राम ॥

॥ चौपाई ॥

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें । मानहु कहा क्रोध तजि तैसें ॥
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा । जातहिं राम तिलक तेहि सारा ॥
रावन दूत हमहि सुनि काना । कपिन्ह बांधि दीन्हे दुख नाना ॥
पूँछिहु नाथ राम कटकाई । बदन कोटि सत बरनि न जाई ॥
नाना बरन भालु कपि धारी । बिकटानन बिसाल भयकारी ॥
श्रवन नासिका काटै लागे । राम सपथ दीन्हे हम त्यागे ॥
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा । सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा ॥
अमित नाम भट कठिन कराला । अमित नाग बल बिपुल बिसाला ॥

॥ दोहा ॥

द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि ।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि ॥

॥ चौपाई ॥

राम तेज बल बुधि बिपुलाई । तब भ्रातहि पूँछेउ नय नागर ॥
तासु बचन सुनि सागर पाहीं । मागत पंथ कृपा मन माहीं ॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा । जौं असि मति सहाय कृत कीसा ॥
सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई । सागर सन ठानी मचलाई ॥
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई । रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई ॥
सचिव सभीत बिभीषन जाकें । बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें ॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी । समय बिचारि पत्रिका काढ़ी ॥
रामानुज दीन्ही यह पाती । नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती ॥
बिहसि बाम कर लीन्ही रावन । सचिव बोलि सठ लाग बचावन ॥

॥ दोहा ॥

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस ।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ॥
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग ।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ॥

॥ चौपाई ॥

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई । कहत दसानन सबहि सुनाई ॥
भूमि परा कर गहत अकासा । लघु तापस कर बाग बिलासा ॥
कह सुक नाथ सत्य सब बानी । समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी ॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा । नाथ राम सन तजहु बिरोधा ॥
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ । जद्यपि अखिल लोक कर राऊ ॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही । उर अपराध न एकउ धरिही ॥
जनकसुता रघुनाथहि दीजे । एतना कहा मोर प्रभु कीजे ॥
जब तेहिं कहा देन बैदेही । चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही ॥
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ । कृपासिंधु रघुनायक जहाँ ॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई । राम कृपाँ आपनि गति पाई ॥
रिषि अगस्ति की साप भवानी । राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी ॥
बंदि राम पद बारहिं बारा । मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा ॥

॥ दोहा ॥

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति ।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति ॥

॥ चौपाई ॥

लछिमन बान सरासन आनू । सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू ॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती । सहज कृपन सन सुंदर नीती ॥
ममता रत सन ग्यान कहानी । अति लोभी सन बिरति बखानी ॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा । ऊसर बीज बएँ फल जथा ॥
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा । यह मत लछिमन के मन भावा ॥
संघानेउ प्रभु बिसिख कराला । उठी उदधि उर अंतर ज्वाला ॥
मकर उरग झष गन अकुलाने । जरत जंतु जलनिधि जब जाने ॥
कनक थार भरि मनि गन नाना । बिप्र रूप आयउ तजि माना ॥

॥ दोहा ॥

काटेहिं पड़ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच ।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ॥

॥ चौपाई ॥

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे । छमहु नाथ सब अवगुन मेरे ॥
गगन समीर अनल जल धरनी । इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी ॥
तव प्रेरित मायाँ उपजाए । सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए ॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई । सो तेहि भाँति रहे सुख लहई ॥
प्रभु भल कीन्ही मोहि सिख दीन्ही । मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही ॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी । सकल ताड़ना के अधिकारी ॥
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई । उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई ॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई । करौं सो बेगि जौ तुम्हहि सोहाई ॥

॥ दोहा ॥

सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ ॥

॥ चौपाई ॥

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई । लरिकाई रिषि आसिष पाई ॥
तिन्ह के परस किएँ गिरि भारे । तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ॥
मैं पुनि उर धरि प्रभुताई । करिहउँ बल अनुमान सहाई ॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बंधाइअ । जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ ॥
एहि सर मम उत्तर तट बासी । हतहु नाथ खल नर अघ रासी ॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा । तुरतहिं हरी राम रनधीरा ॥
देखि राम बल पौरुष भारी । हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी ॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा । चरन बंदि पाथोधि सिधावा ॥

॥ छंद ॥

निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ ।
यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना ।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना ॥

॥ दोहा ॥

सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान ।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान ॥

॥ मासपारायण, चौबीसवाँ विश्राम ॥

॥ इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पञ्चमः सोपानः समाप्तः ॥

॥ श्री रामचरितमानस का यह पंचम सोपान समाप्त हुआ ॥

जय सियाराम जय जय सियाराम ॥
जय सियाराम जय जय सियाराम ॥

Sunderkand Lyrics in Hindi, यह रहा सुंदरकांड – भाग 4, जिसमें लगभग 70+ श्लोक/दोहा/चौपाइयाँ हिंदी अर्थ सहित दिए गए हैं – यह भाग हनुमानजी की लंका में प्रवेश, लंकिनी से भेंट, सीता माता की खोज और भेंट तक की कथा को कवर करता है।


सुंदरकांड पाठ – भाग 4 (श्लोक, दोहा, चौपाई सहित हिंदी अर्थ)

दोहा
जग प्रसिद्ध लंकिनी एक, लंका द्वार रही।
हाथि समान रूप धरि, हनुमानहिं दीखी॥

अर्थ:
लंका के द्वार पर एक राक्षसी ‘लंकिनी’ पहरे पर बैठी थी, जो हाथी जैसे बड़े शरीर में थी। हनुमान जी को देखकर उसने उन्हें रोका।


चौपाई
रोक रही महा बलवाना।
मारि पाछि लंकिनि सो जाना॥
कहइ लंकिनि सुनु पवनसूता।
मोहिं जान पुन्य पुरातन बूता॥

अर्थ:
लंकिनी ने बहुत बलपूर्वक रोका, परंतु हनुमान जी ने एक घूंसा मारा, जिससे वह गिर पड़ी। वह समझ गई कि अब लंका का नाश निकट है और बोली – हे पवनपुत्र! मुझे ज्ञात हो गया कि यह समय पुरातन भविष्यवाणी का है।


चौपाई
चरन बंदि पुनि कीन्हि प्रनामा।
जाइ अंजनिहि दीन्हि बिश्रामा॥
नगर भ्रामि खोजा सब ठाई।
सियां न दीखि कतहु रघुराई॥

अर्थ:
लंकिनी ने चरण पकड़कर क्षमा माँगी। हनुमान जी ने लंका में प्रवेश किया और सीता जी को ढूंढने लगे, पर वह कहीं भी नहीं मिलीं।


चौपाई
बिपिन भितर एक बिटप देखावा।
तहँ सोइन्हि मन बचन धरि दावा॥
बिचारी देखि बिपिन सो रामा।
बैठीं बिटप तले प्रभु नामा॥

अर्थ:
वन में एक वृक्ष के नीचे सीता माता बैठी थीं, प्रभु श्रीराम का ध्यान कर रही थीं। हनुमान जी ने उन्हें पहचान लिया।


दोहा
कांचन बरन बिराजति सीता।
सिंघासन ऊपर बैठीं नीता॥
दीन रूप धरि बिप्र समाना।
आगे हनुमंत भये बड़ जाना॥

अर्थ:
स्वर्णवर्ण सीता माता एक वृक्ष के नीचे बैठी थीं। हनुमान जी ने ब्राह्मण रूप में जाकर उन्हें प्रणाम किया।


चौपाई
रामचंद्र कर बिनय सुनाई।
चूडामणि तब सीता दीन्हीं भाई॥
लेहु इहाँ से प्रभु सन जाई।
कहहु सनेह सकल रघुराई॥

अर्थ:
हनुमान जी ने श्रीराम का संदेश सुनाया। तब सीता माता ने अपनी चूड़ामणि हनुमान जी को दे दी और श्रीराम से स्नेहपूर्ण वचन कहने को कहा।


चौपाई
बहु प्रकार रावण डरावा।
सीता मन तिनके न बहकावा॥
जग में नाम सत्य जब जाना।
राम बिनु जिय कोई न माना॥

अर्थ:
रावण ने सीता जी को बहुत प्रकार से डराया, पर उनका मन नहीं डगमगाया। उन्होंने श्रीराम को ही अपना सब कुछ माना।


चौपाई
राम नाम जपत रहि दिन राती।
रहनि ध्यान धरि प्रभु सुर त्राता॥
देखि कपि भक्ति बल अनुरागा।
मातु हृदय हरषा अभागा॥

अर्थ:
सीता माता दिन-रात श्रीराम का नाम जपती रहीं। हनुमान जी की भक्ति और श्रीराम से प्रेम देखकर वे प्रसन्न हुईं।


दोहा
सीता कहि दीन्हि संदेशा।
राम कृपा करि नाथि विशेषा॥
कहहु राम लखन गुन गाथा।
पुनि सीता कर कीन्हि बड़ाई॥

अर्थ:
सीता माता ने श्रीराम के लिए संदेश दिया और श्रीराम-लक्ष्मण की प्रशंसा की। उन्होंने हनुमान जी की भी प्रशंसा की।


चौपाई
कह कपि तात मैं जाऊं पाछा।
सीतापति कहिहौं साचा॥
चूड़ामणि प्रभु सन लै जाई।
रघुनायक सुनि बड़ि सुख पाई॥

अर्थ:
हनुमान जी बोले – माताजी! अब मैं लौटता हूँ और प्रभु को यह सच्चा समाचार व चूड़ामणि देकर आशीर्वाद प्राप्त कराऊँगा।


चौपाई
रघुपति चरन सदा मन माहीं।
कहहु मातु मैं बात नाहिं॥
अस कहि

Sunderkand Lyrics in Hindi,यह रहा सुंदरकांड – भाग 5, जिसमें हनुमानजी द्वारा लंका में अशोक वाटिका का विध्वंस, राक्षसों से युद्ध, मेघनाद से बंधन, और लंका जलाना जैसी घटनाएँ वर्णित हैं। हर श्लोक/चौपाई/दोहा के साथ हिंदी में अर्थ भी दिया गया है।


सुंदरकांड पाठ – भाग 5 (श्लोक, दोहा, चौपाई सहित हिंदी अर्थ)

चौपाई
चलत बिचारि हनूमत बीरा।
रामकाजु लाग चितु गीरा॥
कंठनित करत नाम रघुराई।
लागे लंक जलावन जाई॥

अर्थ:
हनुमान जी ने वीरता और बुद्धि से विचार करते हुए रामकाज के लिए संकल्प किया और श्रीराम का नाम जपते हुए लंका जलाने चल पड़े।


चौपाई
अशोक वाटिका देखी सुहाई।
सचिवन्ह सहित बयारी बहाई॥
पल भर में सब बृक्ष गिराए।
निज पराक्रम प्रगटि दिखाए॥

अर्थ:
हनुमान जी ने सुंदर अशोक वाटिका देखी और वहाँ जोरदार तूफान की तरह कहर मचाया। क्षणभर में ही सभी वृक्ष गिरा दिए और अपने पराक्रम का प्रदर्शन किया।


दोहा
राक्षस दल बहु आयऊ, गरजि गरजि सब धाय।
मारुतिसुत बल देखि करि, पुनि-पुनि भागि सकाय॥

अर्थ:
बहुत से राक्षस वहाँ आ धमके और गरजने लगे, लेकिन जब उन्होंने हनुमान जी का बल देखा, तो बार-बार डरकर भागने लगे।


चौपाई
आवत देखि बालक एकू।
नाम अकयकुमार बड़ देखू॥
कहि न जाइ बल अतिसय ताका।
बिदित लंकेसहि पुत्र साका॥

अर्थ:
एक बालक आया, उसका नाम अक्षयकुमार था। वह बहुत बलशाली था और रावण का पुत्र था।


चौपाई
तेज बल कपि कीन्ह प्रहारू।
मूर्छित भइउ अकयकुमारू॥
पुनि सम्हरि तिन चरन मारी।
गिरा धरनि तनु भयो सिधारी॥

अर्थ:
हनुमान जी ने तीव्र प्रहार से अक्षयकुमार को मूर्छित कर दिया और फिर एक ही प्रहार में उसे मार गिराया।


दोहा
सुनि सुत मरण क्रोध तें, रावन पठवा नेह।
मेघनाद सब सैन संगे, गयो बज्र सम देह॥

अर्थ:
रावण को जब अपने पुत्र अक्षयकुमार के वध का समाचार मिला, तो वह क्रोधित होकर मेघनाद को भारी सेना सहित भेजता है।


चौपाई
लाए नागपाश बंधन भारी।
बाधेउ मारुतसुत रन जारी॥
निज माया रचि करि करि नीका।
मेघनाद बंदेउ कपि बीका॥

अर्थ:
मेघनाद ने माया रचकर हनुमान जी को नागपाश से बांध लिया। रणभूमि में यह बंधन दिखाया गया।


चौपाई
बांधि चलेउ संग कपि रावन।
सभा बैठा राकस भावन॥
देखि कपि करि बिप्र बेषा।
सुनि नीति बिनय अनुलेषा॥

अर्थ:
हनुमान जी को बांधकर रावण की सभा में ले जाया गया। वहाँ उन्होंने ब्राह्मण जैसा विनम्र व्यवहार किया और नीति की बातें कही।


दोहा
कह कपि सुनु रावन, राम नाम रटि लेहु।
नहिं तजि कपट अभिमान, अंतकाल दुख देहु॥

अर्थ:
हनुमान जी बोले – हे रावण! श्रीराम का नाम जप लो, कपट और अभिमान को छोड़ दो, नहीं तो अंत समय में भारी कष्ट पाओगे।


चौपाई
सुनि बचन कपि के मन माहीं।
रावन बोला हँसि मन माहीं॥
पुनि कहि दीन्हि तात कर फूंकू।
चलत कपि तुरतहिं पूँछहिं सूँकू॥

अर्थ:
हनुमान जी की बात सुनकर रावण हँसा और बोला – इस वानर की पूंछ में आग लगा दो। तुरंत ही पूंछ में कपड़ा बाँधा गया।


चौपाई
कपि मन कीन्ह बिचार गँभीरा।
अब लंका देखौं सब हीरा॥
आग लगी पूँछीं तहँ जागी।
भइ नगर भस्म सब लागी॥

अर्थ:
हनुमान जी ने गहरा विचार किया – अब पूरी लंका देखनी है। जब पूंछ में आग लगी, तो उन्होंने लंका के एक-एक भाग को जलाना शुरू कर दिया।


दोहा
गृह कुटी सब जरि गईं, भवन महा बहु धूम।
लंकापुरी जलत देखि, भयभीत भए घनघूम॥

अर्थ:
लंका की सारी हवेलियाँ, घर-आँगन जलकर राख हो गए। पूरी लंका धुएँ से भर गई और सभी भयभीत हो उठे।


चौपाई
कपि उछलि पुनि जाई बिचारा।
रामकाजु करत नहीं बिसारा॥
चूड़ामणि प्रभु सन लै जाई।
सुनि रघुपति हरषि मन भाई॥

अर्थ:
हनुमान जी ने सब कार्य पूर्ण कर विचार किया कि रामकाज अब पूर्ण हो गया। वे सीता जी की चूड़ामणि लेकर श्रीराम के पास चल दिए। श्रीराम ने समाचार पाकर उन्हें हर्षित होकर गले लगाया।


यहाँ तक सुंदरकांड का भाग 5 पूर्ण हुआ। यदि आप भाग 6 चाहते हैं जिसमें हनुमानजी की वापसी, श्रीराम को समाचार, सेतुबंध और लंका विजय की तैयारी आती है, तो बताइए।

,यह रहा सुंदरकांड – भाग 6, जिसमें हनुमानजी की श्रीराम के पास वापसी, लंका के समाचार, रामजी का उत्साह, वानरसेना की तैयारी, और समुद्र तट पर सेतुबंधन की योजना का वर्णन है। प्रत्येक दोहा/चौपाई के साथ हिंदी में अर्थ भी दिया गया है।


सुंदरकांड पाठ – भाग 6 (श्लोक, दोहा, चौपाई सहित हिंदी अर्थ)

चौपाई
रामदूत हनुमान सुजाना।
जय जय जय हनुमान बहाना॥
लंकाँ जाइ सिया सुधि लाई।
चरित कथा सब रघुपति सुनाई॥

अर्थ:
श्रीराम के दूत, बुद्धिमान हनुमानजी की जय हो। उन्होंने लंका जाकर सीताजी की सुध ली और श्रीराम को सम्पूर्ण कथा सुनाई।


दोहा
लै चूड़ामणि प्रभु पदे, राखे निज कथा कहि।
सुनि सब सुकृत राम रुख, हरषे हरि मन महि॥

अर्थ:
हनुमानजी ने सीताजी द्वारा दिया गया चूड़ामणि श्रीराम के चरणों में रखा और पूरी कथा सुनाई। श्रीराम ने सब समाचार सुनकर हर्षित मन से उनकी सराहना की।


चौपाई
राम कृपाँ सागर मन हर्षा।
लागे हनूमान पर अति प्यासा॥
बोले बचन प्रेम रस लपेटे।
कह सबु कथा तुम्हारि सुसमेटे॥

अर्थ:
कृपालु श्रीराम ने प्रेमपूर्वक हनुमानजी की सराहना की और कहा कि तुमने जो किया है, वह संक्षेप में भी महान है।


चौपाई
राम कहा सुनु पवनसुत बीरा।
तुम सम नहिं को प्रिय मम धीरा॥
तुम्हरी भक्ति भरत सम भाई।
हमारें प्रिय तुम्ह सम नहिं काई॥

अर्थ:
श्रीराम ने कहा – हे पवनपुत्र वीर हनुमान! मेरे लिए तुमसे अधिक प्रिय कोई नहीं है। तुम्हारी भक्ति मेरे भाई भरत के समान है।


दोहा
गदगद गिरा रघुनाथ की, सुनि कपि मन अति हर्ष।
नेत्र नीर पुलकित तनु, प्रेम मगन नभ गर्ज॥

अर्थ:
श्रीराम के प्रेमभरे वचनों को सुनकर हनुमानजी का मन अत्यंत प्रसन्न हो गया। वे प्रेम में भरकर आकाश में गरज उठे।


चौपाई
तब रघुपति अंग अति सरासा।
भरि अँक उर लईं प्रेम पासा॥
कहहिं नाथ भरत सम तोही।
करउँ उर धरि प्रेम सम मोही॥

अर्थ:
श्रीराम ने हनुमानजी को प्रेमपूर्वक अपने गले लगाया और कहा – हे हनुमान! तुम मेरे लिए भरत के समान प्रिय हो। मैं तुम्हें अपने हृदय में स्थान देता हूँ।


चौपाई
सुनत वचन बिकल भए लाली।
हरषि हरषि मगन भए आली॥
सब मिलि कीन्ह परम परसन्ना।
लक्ष्मण सहित कृपामय रघुनन्दा॥

अर्थ:
हनुमानजी के प्रति श्रीराम और लक्ष्मण का स्नेह देखकर सब वानर अत्यंत प्रसन्न हुए। पूरे दल में उल्लास छा गया।


दोहा
रघुपति दीन्ह परीसा, कहे बचन सुखदाय।
सुनहु कपि तजि कलेस सब, चलहु संग सुबाय॥

अर्थ:
श्रीराम ने प्रिय वचनों के साथ कहा – हे वानरो! अब सभी चिंता छोड़कर चलो, हमें शीघ्र ही लंका जाना है।


चौपाई
लंका चलनु भयो तब भाई।
सब दल संग चले रघुराई॥
सागर तीर लईं सभि आयो।
चिंतन करत सकल उपायो॥

अर्थ:
अब श्रीराम ने लंका चलने का विचार किया। वे सम्पूर्ण वानर सेना के साथ समुद्र तट पर पहुंचे और विचार करने लगे कि कैसे पार जाएँ।


चौपाई
राम बिनय सागर सन कीन्हा।
सेतु बाँधु करुनहिं मती दीन्हा॥
सुनि बचन सागर मन डोला।
परम नीति तब कपि को बोला॥

अर्थ:
श्रीराम ने समुद्र से प्रार्थना की कि वह मार्ग दे। जब समुद्र नहीं पिघला, तब श्रीराम ने उसे दंड देने की सोची।


दोहा
राम रोष सम देखिय, नीति न मानै कोय।
भय बिनु होय न प्रीति, कहहिं वेद मुनि होय॥

अर्थ:
श्रीराम ने कहा – यदि कोई नीति नहीं मानता, तो उसे दंड देना उचित है। भय के बिना कोई भी प्रेम नहीं करता, ऐसा वेद और मुनि कहते हैं।


चौपाई
तब लखन मारि बान कराला।
उठे सागर मचि विषाला॥
प्रणति कीन्हि सागर डराई।
दिया उपाय सेतु बँधाई॥

अर्थ:
जब लक्ष्मण ने बाण चलाया, तब समुद्र डर गया और लहरें उठने लगीं। उसने श्रीराम से क्षमा माँगी और सेतुबंध की विधि बताई।


चौपाई
नल-नील तब रचें सेतू भारी।
पत्थर तरे तरे जलपारी॥
राम नाम सुमिरत जो राखे।
बँधे सेतु सब माया भाखे॥

अर्थ:
वानर नल और नील ने समुद्र पर विशाल सेतु का निर्माण करना शुरू किया। श्रीराम का नाम लिखे पत्थर जल पर तैरते गए।


दोहा
सेतु बँध्यो सुमिरत राम, पवन तनय जस पाय।
लंका जुगति लघु करि चले, सकल दल सुभाय॥

अर्थ:
हनुमानजी की सहायता और श्रीराम के नाम की महिमा से समुद्र पर सेतु बन गया। समस्त वानर सेना सुंदर ढंग से लंका की ओर चल पड़ी।


यहाँ सुंदरकांड का भाग 6 पूर्ण हुआ। इसमें श्रीराम की समुद्र तट पर योजना, सेतुबंध और लंका विजय की तैयारी का वर्णन है।

अगर आप सुंदरकांड का भाग 7 (लंका पहुँचकर युद्ध प्रारंभ, रावण की सभा, विभीषण शरणागति) चाहते हैं।

YouTube Video: Sunderkand Lyrics in Hindi

आप नीचे दिए गए लिंक से सुंदरकांड का संपूर्ण पाठ हिंदी लिरिक्स के साथ सुन सकते हैं:Sunderkand Lyrics in Hindi


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Full Song Details – सुंदरकांड लिरिक्स विवरण

विवरणजानकारी
पाठ का नामसुंदरकांड
लेखकगोस्वामी तुलसीदास
भाषाएंहिंदी
ग्रंथरामचरितमानस
शैलीभक्ति काव्य
प्रमुख पात्रहनुमान जी, श्रीराम, सीता माता, रावण
पाठ का महत्वसंकटों से मुक्ति, मन की शांति, कार्यसिद्धि
पाठ की कुल चौपाइयाँलगभग 60+ चौपाइयाँ और दोहे
वेबसाइटLyricsWaale.com

Song Meaning – सुंदरकांड का अर्थ

“सुंदरकांड” शब्द का अर्थ है “सुंदर अध्याय”। यह कांड भगवान हनुमान के अद्भुत पराक्रम, भक्ति और बुद्धिमत्ता का प्रतीक है। इस कांड में हनुमान जी समुद्र पार कर लंका जाते हैं, माता सीता से मिलते हैं और अशोक वाटिका में राक्षसों को पराजित कर श्रीराम का संदेश देते हैं।Sunderkand Lyrics in Hindi,

सुंदरकांड का पाठ व्यक्ति को नकारात्मक ऊर्जा, भय, मानसिक तनाव, और जीवन की बाधाओं से मुक्ति दिलाता है। इसे पढ़ने या सुनने मात्र से ही आत्मिक बल की प्राप्ति होती है।

सुंदरकांड लिरिक्स हिंदी में – Sunderkand Lyrics in Hindi | संपूर्ण पाठ
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Conclusion – क्यों पढ़ें सुंदरकांड LyricsWaale.com पर?

सुंदरकांड लिरिक्स हिंदी में – Sunderkand Lyrics in Hindi | संपूर्ण पाठ
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सुंदरकांड का पाठ कब करना चाहिए?

सुंदरकांड का पाठ किसी भी दिन किया जा सकता है, लेकिन मंगलवार और शनिवार को इसका विशेष महत्व होता है।

क्या सुंदरकांड को रोज पढ़ सकते हैं?

हाँ, सुंदरकांड का नियमित पाठ मानसिक शांति और सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है।

सुंदरकांड पाठ कितने समय का होता है?

पूरा पाठ लगभग 30 मिनट से 1 घंटे में पूरा किया जा सकता है।

सुंदरकांड किसने लिखा है?

गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसे रामचरितमानस में रचा है।

सुंदरकांड का अर्थ क्या है?

यह हनुमान जी के सुंदर कार्यों, साहस और भक्ति को दर्शाने वाला अध्याय है।

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